बजाज परिवार से मुलाकात

मोहनलाल सुखाड़िया

बम्बई से लौटने के बाद उदयपुर में उन्होंने लोकनायक माणिक्यलाल वर्मा के सान्निध्य और नेतृत्व में स्वंतत्रता संग्राम में सक्रिय कार्यकर्ता के रूप में कार्य करना प्रारम्भ कर दिया। परिवार का जीवनयापन करने के लिये इन्दुबाला ने धानमण्डी स्थित एक पाठशाला में अध्यापिका की नौकरी करना शुरू किया। श्री सुखाड़िया शीघ्र ही अखिल भारतीय देशी राज्य लोक परिषद की शाखा ‘‘राजपूताना प्रान्तीय सभा’’ में सक्रिय हो गये। वे मेवाड़ राज्य प्रजामण्डल के प्रमुख कार्यकर्ता के रूप में इसकी बैठकों में भाग लेते। उन दिनों प्रायः हर दूसरे तीसरे महीने किसी न किसी रियासत में राजपूताना प्रान्तीय सभा की प्रबंध समिति की बैठकें होती रहती थी।

इन बैठकों में विभिन्न रियासतों से आने वाले प्रतिनिधि अपने-अपने क्षेत्रों की समस्याओं तथा राजा की ओर से किये जाने वाले अन्याय, शोेषण और अत्याचार का विवरण और उनके समाधान हेतु अपने सुझाव देते। इन बैठकों में श्री सुखाड़िया जो सारगर्भित भाषण और उपयोगी एवं व्यावहारिक सुझाव देते, उनसे सभी प्रतिनिधि बहुत प्रभावित होते थे। इन बैठकों के अवसर पर सार्वजनिक सभाओं का भी आयोजन किया जाता था। इन सभाओं में श्री सुखाड़िया जो तर्कसंगत और भावपूर्ण शैली में भाषण देते उनसे सभी श्रोताओं का प्रभावित होना स्वाभाविक था। इन्हीं बैठकों के दौरान श्री सुखाड़िया का सम्पर्क विभिन्न रियासतों के प्रतिनिधियों से होना प्रारम्भव हो गया था और उनकी प्रदेशस्तरीय पहचान बन गई थी। अपने परिश्रम, सूझ-बूझ और स्वतंत्रता संग्राम के प्रति अटूट प्रतिबद्धता के कारण वे शीघ्र ही श्री माणिक्यलाल वर्मा के मानसपुत्र के रूप में विख्यात हो गये।

जब 1942 में महात्मा गांधी ने ‘‘करो या मरो’’, ‘‘स्वेच्छाचारी शासन समाप्त करो’’, ‘‘अंग्रेजों भारत छोड़ो’’ का नारा दिया, श्रीमती इन्दुबाता की गोद में छः माह की कन्या थी। परिवार की आर्थिक स्थिति भी अच्छी नहीं थी। श्रीमती सुखाड़िया ने शादी के बाद धानमण्डी स्थित बालिका विद्यालय में अध्यापिका के रूप में जो नौकरी प्रारम्भ की थी उससे वहां से प्राप्त अल्प वेतन के कारण परिवार के सामने हमेशा आर्थिक तंगी की स्थिति बनी रहती थी। लेकिनी अपनी इस संकटपूर्ण पारिवारिक स्थिति की परवाह किये बिना श्री सुखाड़िया ने बढ़-चढ़ कर भारत छोड़ो आंदोलन में भाग लिया जिसके फलस्वरूप मेवाड़ राज्य की सरकार ने उनको जेल के सीखचों में बंद कर दिया। तत्कालीन दमनकारी सरकार इस आंदोलन से श्री सुखाड़िया को अलग करना चाहती थी इसलिए सरकारी कारिन्दों ने श्रीमती इन्दुबाला जी से सम्पर्क किया लेकिन उन्होंने एक देशभक्त की सच्ची अद्र्धांगिनी का कर्तव्य निभाते हुए रियासती सरकार के हर प्रलोभन को ठुकरा दिया। उन्होंने श्री सुखाड़िया से जेल में मुलाकात कर कहा ‘‘मेरी वजह से आप में किसी प्रकार की कमजोरी नहीं आनी चाहिए। आपने जो मार्ग पकड़ा है यद्यपि वह कांटों पर चलने का है, फिर भी देश को गुलामी की जंजीरों से मुक्त कराने के संकल्प की सिद्धि के लिए यदि आपको फांसी पर भी झूलना पड़े तो भी पीछे मत हटिए’’

श्री सुखाड़िया के जेल से रिहा होने के कुछ ही समय पश्चात् 1943 में भयंकर बाढ़ आई और भीलवाड़ा और उसके आस-पास के गुलाबपुरा, विजयनगर आदि कस्बे और सैंकड़ों गांव बाढ़ के पानी से घिर गये। हजारों परिवार बेघर-बार हो गये और हा-हा कार मच गया। इस विषय स्थिति में श्री सुखाड़िया प्रजामण्डल के सैंकड़ों कार्यकर्ताओं के साथ बाढ़ पीड़ितों को राहत पहुँचाने के कार्य में जुट गये। उनकी प्रेरणा से स्वयं सेवी संस्थाएँ भी आगे आई और बाढ़पीड़ितों को इस प्राकृतिक विपदा के समय पूरी सहायता उपलब्ध कराई।

साहित्व सम्मेलन का प्रबंध

अखिल भारतीय हिन्दी साहित्व सम्मेलन का अधिवेशन 1944 में उदयपुर में आयोजित हुआ। इस आयोजन की व्यवस्था का बहुत कुछ भार भी सुखाड़िया को सौंपा गया। उन्होने जिस कुशलता, परिश्रम और योजनाबद्ध तरीकें से इस सम्मेलन के आयोजन को सफलतापूर्वक सम्पन्न करया, उससे उनके नेतृत्व के गुणों, संवेदनशीलता और हिन्दी-प्रेम ने सबको प्रभावित किया।

उदयपुर में 31 दिसम्बर, 1945 से 2 जनवरी, 1946 तक अखिल भारतीय देशी राज्य लोक परिषद का अधिवेशन हुआ। श्री सुखाड़िया ने इस अधिवेशन में स्वागत मंत्री के रूप् में जिस कुशलता के साथ पूरा आयोजन सम्पन्न करवाया उससे उनकी सर्वत्र प्रशंसा हुई। इस अधिवेशन में स्व. श्री जवाहरलाल नेहरू, शेख अबदुल्ला, रविशंकर शुक्ल, पुरूषोत्तम दास टंडन जैसे शीर्षस्थ नेताओं ने भाग लिया था। अधिवेशन के आयोजन में मुख्य भूमिका निभाने के कारण वे इन सभी शीर्षस्थ नेताओं की नजरों में चढ़ गए।

मोहनलाल सुखाड़िया

भारत छोड़ो आंदोलन से पूर्व के तीन-चार वर्षों में श्री सुखाड़िया ने मेवाड़ रियासत के सभी क्षेत्रों, विशेषकर आदिवासी अंचलों में, जनजागरण और जनसम्पर्क बनाया उससे श्री माणिक्यलाल वर्मा बहुत प्रभावित हुए। श्री सुखाड़िया वर्मा जी की अपेक्षाओं में खरे उतरे और उनकी गिनती वर्माजी के प्रमुख सहयोगी के रूप में होने लगी।

उन दिनों श्री सुखाड़िया किन विकट परिस्थितियों में भी किस जीवट के साथ कार्य करते थे, उसका सजीव चित्रण उनके एक पुराने सहयोगी स्व. गिरधारीलाल शर्मा ने एक लेख में निम्नलिखित शब्दों में किया था - ‘‘राजस्थान की जनता जब दोहरी और तिहरी गुलामी की जंजीरों से जकड़ी हुई थी तो सुखाड़ियाजी जैसा व्यक्ति कैसे चुप रह सकता था। उन्होंने जंगल-जंगल, पहाड़ो-पहाड़ों और ऊबड़-खाबड़ पगडंडियों पर पैदल चलकर आदिवासियों को जगाने का संकल्प लिया। वे तथा उनके साथी स्व. रोशनलाल शर्मा गांव-गांव, घर-घर घूमते थे। कभी-कभी ऐसा भी अवसर आता था जब लोक जागीरदार के आंतक के कारण उन्हें घर में आश्रय भी नहीं देते थे, तब वे चैराहों पर ही सो जाते थे और सदियों से पीड़ित, शोषित और बेगार प्रथा की परेशानियों से लोगों को रात्रि से समय मिलकर अवगत कराते थे। आदिवासियों के विकास के लिए उन्होंने अनेक विशिष्ट योजनाऐं बनाई तथा उन्हें कार्यान्वित करने का प्रयत्न किया। उनके इन कामों से तत्कालीन मेवाड़ सरकार बहुत अधिक क्षुब्ध थी।’’