अहर्निश कर्मयोगी का महाप्रयाण

मुख्यमंत्री पद का त्याग करने के बाद लगभग 6 वर्षो तक श्री सुखाड़िया दक्षिण के तीन महत्वपूर्ण राज्यों के राज्यपाल रहे। आपातकाल की समाप्ति के बाद हुए छठी लोकसभा चुनाव में जब केन्द्र में कांग्रेस पार्टी का तख्ता पलटा और 24 मार्च, 1977 को देश में प्रथम गैर कांग्रेसी सरकार के प्रधानमंत्री के रूप में श्री मोरारजी देसाई ने शपथ ग्रहण की तब श्री सुखाड़िया तमिलनाडु के राज्यपाल थे। वे देश में अकेले ऐसे प्रथम राजनेता थे जिन्होंने दिल्ली में सत्ता-परिवर्तन के साथ ही टेलीफोन पर अपने राज्यपाल पद से त्यागपत्र की श्री देसाई से पेशकश की। इस पर श्री देसाई ने कहा ‘‘सुखाड़िया जी ऐसी जल्दी भी क्या है? बाद में देख लेंगे।’’

यह सर्वविदित तथ्य है कि राज्यपाल पद पर रहने वाला व्यक्ति किसी राजनीतिक दल विशेष का सदस्य नहीं रहता और यह भी राजनीति में रूचि रखने वाले लोगों से छिपा हुआ नहीं था कि श्री मोरारजी देसाई से श्री सुखाड़िया के व्यक्तिगत स्तर रहने कितने अच्छे सम्बन्ध थे। लेकिन लोकतंत्र के उच्चादर्शो में गहन निष्ठा रखने वाले श्री सुखाड़िया ने पलट कर प्रधानमंत्री को अत्यन्त विनम्रतापूर्वक केवल इतना ही कहा कि आपको वैकल्पिक व्यवस्था करने में यदि एक दो-दिन का समय लगे तो अलग बात है वरना अमुक तिथि तक अपना त्यागपत्र स्वीकार मानते हुए वे राजभवन से प्रस्थान कर जायेंगे।

मोहनलाल सुखाड़िया

मद्रास से उदयपुर लौटकर श्री सुखाड़िया बिना कोई आराम किये पूर्व की भांति राज्य विधानसभा के आसन्न चुनावों में कूद पड़े। मई-जून के महीनों में, जब राज्य में ग्रीष्म ऋतु अपना प्रचण्ड रूप दिखाती है, श्री सुखाड़िया ने एक बंद जीप की छत पर अपना बिस्तर डाला और निकल पड़े गांव-गांव और ढाणी-ढाणी में अपनी पार्टी के उम्मीदवारों के प्रचार का शंख फूंकने। तब श्री सुखाड़िया ही कांग्रेस के एक मात्र ऐसे नेता थे जिन्होंने राज्य के शायद ही किसी विधानसभा क्षेत्र को नहीं छुआ हो जब कि अधिकांश प्रादेशिक नेता अपने-अपने चुनाव क्षेत्रों तक ही सिमट कर रह गये थे।

वर्ष 1977 में देश में हुए इस अप्रत्याशित और व्यापक राजनीतिक परिवर्तन के कारण कांग्रेस चैराहे पर खड़ी थी। उसके छोटे-बड़े सभी नेताओं में गहरी निराशा घर कर गई थी और अनेक वरिष्ठ नेता इस स्थिति के लिए श्रीमती इंदिरा गांधी को जिम्मेदार ठहरा रहे थे। जनवरी, 1978 में बदली हुई परिस्थितियों पर विचार करने और पार्टी की दिशा तय करने के लिए नई दिल्ली में अ.भा. कांग्रेस महासमिति की बैठक आयोजित की गयी। इस बैठक में अपनी अस्वस्थता के कारण श्री सुखाड़िया स्वयं तो शामिल नहीं हो सके लेकिन उन्होंने श्री हीरालाल देवपुरा सहित अपने सभी निकट सहयोगियों को इस बैठक में भाग लेने के लिए कांग्रेस दो फाड़ हो गई। एक के अध्यक्ष श्री ब्रह्यानन्द रेड्डी और नई कांग्रेस की अध्यक्ष श्रीमती इंदिरा गांधी बनी। यह नई कांग्रेस ही आज तक कांग्रेस (आई) के रूप में विद्यमान है।

राजस्थान कांग्रेस के सर्वश्री रामकिशोर व्यास, नवलकिशोर शर्मा, शिवचरण माथुर, जगन्नाथ पहाड़िया, रामनारायण चैधरी, जनार्दनसिंह गहलोत तथा श्रीराम गोटेवाला आदि वरिष्ठ नेताओं ने कांग्रेस (आई) की सदस्यता स्वीकार की। जब श्री हीरालाल देवपुरा ने उदयपुर लौट कर पूरे घटना क्रम की जानकारी श्री सुखाड़िया को दी तो श्री देवपुरा के ही शब्दों में - ‘‘श्री सुखाड़िया ने एक लम्बी चुप्पी के बाद अत्यन्त वेदनापूर्ण शब्दों में मुझे कहा कि देवपुरा जी राजनीति में प्रत्येक व्यक्ति को अपनी व्यक्तिगत समझ के मुताबिक कार्य करने का अधिकार है अतः आपने अब जो नया रास्ता चुना है, आप उसी पर चलो। लेकिन मैं स्वयं इंदिरा गांधी की प्रखर नेतृत्व क्षमता में विश्वास होने के बावजूद उसी पुरानी कांग्रेस में बना रहना पसंद करूंगा। मेरी दृष्टि में कांग्रेस संगठन किसी भी प्रभावशाली एवं महान व्यक्ति की अपेक्षा अधिक वजनी है।’’

लगभग डेढ़ वर्ष तक श्री सुखाड़िया पुरानी कांग्रेस में ही बने रहे। बाद में जब उन्हें यह अहसास होने लगा कि पुरानी कांग्रेस का भारतीय जन-मानस पर कोई प्रभाव नहीं रहा है तो वे अपने अन्य साथियों के साथ श्रीमती इंदिरा गांधी के अनुरोध पर 7 जुलाई, 1979 को कांग्रेस (आई) में शामिल हो गये।

अगस्त, 1979 में जब केन्द्र में जनता पार्टी की सरकार अपने अन्तर्विरोधों के कारण गिर गई और जनवरी, 1980 में लोकसभा के नये चुनाव हुए तो श्रीमती इंदिरा गांधी ने श्री सुखाड़िया को उदयपुर क्षेत्र से कांग्रेस (आई) का प्रत्याशी बनाया। श्री सुखाड़िया चुनाव में भारी बहुमत से प्रथम बार लोकसभा के सदस्य चुने गये।

चुनावोपरान्त श्रीमती इंदिरा गांधी के पुनः प्रधानमंत्री बनने पर राजनीतिक क्षेत्रों में श्री सुखाड़िया को मंत्रिमण्डल के लिए जाने और गृह अथवा अन्य कोई महत्वपूर्ण मंत्रालय दिए जाने की चर्चा जोरों पर रही लेकिन श्री सुखाड़िया की ऐसी कोई लालसा नहीं थी। उन्हीं के शब्दों में - ‘‘अनेक बार मेरे को केन्द्रीय मंत्रिमण्डल में लेने की चर्चाएँ चलती है, समाचार पत्रों में भी यह सब छपता रहता है और मित्रों तथा शुभचिन्तकों की ऐसी कामना भी हो सकती है लेकिन जहां तक मेरी स्वयं की इच्छा का प्रश्न है अब केवल सांसद के रूप में ही राजस्थान के लिए जो कुछ कर सकता हूं, करने का प्रयास करना चाहता हूँ। बढ़ती हुई आयु और गिरते हुए स्वास्थ्य के कारण भी अब मैं अधिक उत्तरदायित्व संभालने में अपने को सक्षम नहीं समझता हूं। अब तो कम उत्तरदायित्व ही मेरे लिए श्रेयस्कर होगा।’’

श्री सुखाड़िया अपने ये आंतरिक उद्गार अपने एक प्रशंसक पूर्व विधायक श्री माणिकचंद कोठारी के समक्ष अक्टूबर 1980 में प्रकट किए थे जब वे दिल्ली में प्रोस्टेट गांठ का आॅपरेशन कराने के बाद जयपुर में विश्राम और स्वास्थ्य लाभ के लिए आये हुए थे।

21 दिसम्बर, 1981 को भारत सरकार ने बिक्री कर के स्थान पर वैकल्पिक राजस्व व्यवस्था के लिए श्री सुखाड़िया को एक सदस्यीय समिति का अध्यक्ष मनोनीत करने के साथ ही कैबिनेट मंत्री का दर्जा प्रदान कर सम्मानित किया। इस पद को श्री सुखाड़िया ने स्वयं की अनिच्छा के बावजूद श्रीमती गांधी के अनुरोध पर स्वीकार किया और मृत्युपर्यन्त इस पद पर कार्यरत रहे।

लेकिन वे अपनी अंतिम सांस तक राजस्थान की धरती से जुड़े रहे।

मोहनलाल सुखाड़िया

बीकानेर में सर्दी के दिनों में कड़ाके की ठण्ड पड़ती है। 29 जनवरी, 1982 के दिन ठण्ड कुछ ज्यादा ही थी। श्री मोहनलाल सुखाड़िया उस दिन प्रातःकाल उदयपुर से रेल द्वारा बीकानेर में आयोजित राज्यस्तरीय पंचायती राज सम्मेलन में भाग लेने के लिए आये थे। वे उस समय उदयपुर संसदीय क्षेत्र से निर्वाचित लोकसभा सदस्य थे। उन्हीं के मुख्यमंत्रित्व काल में राजस्थान में पंचायती राज की स्थापना हुई थी। राज्य में पंचायती राज को सुदृढ़ करने के लिए उन्होंने बहुत कुछ किया था।

श्री सुखाड़िया ने इस अवसर पर आयोजित प्रदर्शनी के उद्घाटन समारोह में भाग लिया और प्रदर्शनी स्थल पर लगाये गये विभिन्न कक्षों का उन्होंने पूरी रूचि और तल्लीनता के साथ अवलोकन किया। दूसरे दिन श्री राजीव गांधी इस सम्मेलन का उद्घाटन करने आने वाले थे। श्री राजीव गांधी के सभा-स्थल पर आगमन से पूर्व श्री सुखाड़िया मंच से उतर कर जिला प्रमुखों और प्रधानों के बैठने के लिए बनाये गये अलग-अलग खण्डों में गये और वहां बहुत देर तक खड़े-खड़े सब से बड़े आत्मीय भाव से बातचीत करते रहे। सत्ता में अलग हुए उन्हें लगभग बारह वर्ष का समय हो चुका था लेकिन उस दिन ऐसा लग रहा था जैसे यह लम्बा अंतराल हुआ ही नहीं हो। वहां उपस्थित सभी चेहरे उनके जाने पहचाने थे और सभी चेहरों से उनके प्रति असीम श्रद्धा और स्नेह का भाव झलक रहा था।

जब श्री राजीव गांधी तत्कालीन केन्द्रीय गृह मंत्री सरदार ज्ञानी जैलसिंह के साथ सभा-स्थल पर पहंुचे, श्री सुखाड़िया भी मंच पर आ गये। सभा की कार्यवाही प्रारम्भ हुई। कुछ समय पश्चात् जब सभा को सम्बोधित करने के लिए उनके नाम की उद्घोषणा की गई, श्रोताओं को मंत्र मुग्ध कर देने वाली अपनी चिर-परिचित शैली में उन्होंने भाषण देना प्रारम्भ किया। उनका यह भाषण बहुत ही मार्मिक और हृदयस्पर्शी था। लेकिन ऐसा लग रहा था, कि वे बहुत कुछ कहना चाहते है लेकिन कह नहीं पा रहे है। उस कड़ाके की सर्दी में भी उन्हें पसीना आ गया था और बार-बार रूमाल से अपने चेहरे और गर्दन से पसीना पोंछ रहे थे। उन्होंने अपना भाषण बीच में ही समाप्त कर दिया और वे एकदम बैठ गये। उन्होंने एक गिलास पानी मांगा, पानी पीकर उन्होंने कहा कि ऐसा लगता है कि उन्होंने पान के साथ सुपारी का बीज खा लिया है। उस समय उन्हें जरा भी संदेह नहीं हुआ कि उन्हें दिल का दौरा पड़ा है। मंच पर उनके पास बैठे हुए तत्कालीन मुख्यमंत्री श्री शिवचरण माथुर तथा अन्य लोगों ने उनसे आग्रह किया कि वे मंच के नीचे बने हुए कक्ष में जाकर कुछ देर विश्राम करें। मंच से सीढ़ियां उतरकर श्री सुखाड़िया विश्राम कक्ष में पहुंचे। वहां श्री राजीव गांधी और ज्ञानी जैलसिंह के लिए डाॅक्टर तैनात थे। उन्होंने श्री सुखाड़िया को देखते ही बाहर खड़ी एम्बुलेंस से रक्तचाप नापने का उपकरण और ई.सी.जी. मशीन का उपयोग करना प्रारम्भ किया गया तो पता चला कि मशीन खराब है, काम नहीं कर रही है। डाॅक्टरों ने कहा कि श्री सुखाड़िया को तुरन्त अस्पतान ले चलना चाहिए। सब को बहुत चिन्ता हुई लेकिन श्री सुखाड़िया मुस्कुराते हुए कह रहे थे कि उन्हें कुछ नहीं हुआ है। आप लोग व्यर्थ में ही परेशान हो रहे हो। उनके बड़े दामाद तत्कालीन उद्योग निदेशक श्री मन्नालाल गोयल भी वहां थे। वे आग्रह कर उन्हें अस्पताल ले गये। वे पैदल ही चल कर अंदर गये। वहां ई.सी.जी. परीक्षण होते ही पता चला कि उन्हें गम्भीर और घातक दिल का दौरा पड़ा है। फिर तो डाॅक्टरों ने उन्हें बचाने के सभी प्रयास किये। जयपुर से उनकी पुत्री श्रीमती पुष्पा गोयल राज्य के वरिष्ठ एवं ख्यातिप्राप्त चिकित्सक डाॅ. एस.आर. मेहता को साथ लेकर तुरन्त बीकानेर पहुंची। बम्बई से एक विख्यात हृदय रोग विशेषज्ञ को भी विशेष वायुयान द्वारा बीकानेर बुलाया गया। लेकिन सब उपाय और उनके असंख्य प्रशंसकों की दुआएं विधि के विधान के आगे निष्फल होकर रह गई और मात्र 66 वर्ष की आयु में राजस्थान का यह यशस्वी पुत्र 2 फरवरी की ब्रह्य बेला में अनन्त में विलीन हो गया।

3 फरवरी, 1982 को जब उनका अंतिम संस्कार उदयपुर में किया गया तो राजस्थान के हर कोने का व्यक्ति अश्रुपूरित नेत्र लिए वहां मौजूद था। उस दिन उदयपुर नगर में किसी घर या किसी भोजनालय अथवा होटल में चूल्हा नहीं जला। कोई भी व्यक्ति अपने घर में नहीं था। सब के सब लाखों की संख्या में अपने प्रिय नेता, अपने हमदर्द, अपने दोस्त और अपने सुख-दुख के भागीदार के अंतिम दर्शन करने और उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करने के लिए उनके निवास स्थान दुर्गा नर्सरी के चारों ओर जमा थे। राज्य के मुख्यमंत्री, भूतपूर्व मुख्यमंत्री, अन्य मंत्री, विपक्ष के नेता, सांसद, विधायक, उद्योगपति, पत्रकार सभी वहां मौजूद थे। दिल्ली से तत्कालीन गृहमंत्री ज्ञानी जैलसिंह भी वहां पहुंचे। अश्रुपूरित विशाल जनसमूह को देखकर उन्होंने कहा ‘‘सुखाड़िया वास्तव में बहुत बड़ा आदमी था।’’

श्री सुखाड़िया जब तक जीवित रहे भीड़ से घिरे हुए और असंख्य लोगों का प्यार और सम्मान पाते रहे। जब वे इस दुनिया से गये तब भी उसी प्यार और सम्मान के साथ लाखों लोगों की भीड़ ने उन्हें अश्रुपूरित नेत्रों से अंतिम विदा दी।

अपनी मृत्यु से दो दिन पूर्व बीकानेर में आयोजित पंचायती राज सम्मेलन में राजस्थान के सभी अंचलों से आये हुए पंचायती राज प्रतिनिधियों को सम्बोधित करते हुए उन्होंने कहा था ‘‘इस सभा में जो रंग-बिरंगी पगड़ियां नजर आ रही है उनको देखकर मैं यह महसूस करता हूं कि राजस्थान के लोग मुसीबत का मुकाबला करने के आदी रहे है और इस धरती में जहां चारों तरफ रेगिस्तानी बालू नजर आती है उसमें खुश किस्मक इंसान पैदा होता है।’’ राजस्थान के मजबूत इंसान और मुसीबत का मुकाबला करने की उसकी क्षमता पर श्री सुखाड़िया को गहन आस्ता थी। इस क्षमता और आस्था के आधार पर ही श्री सुखाड़िया ने राजस्थान की भाग्य रेखा को स्वर्णिम रेखा में परिवर्तित कर एक आधुनिक और खुशहाल राजस्थान के अपने सपने को साकार किया।

ऐसे संवेदनशील, करूणामय, स्वप्न-दुष्टा और स्वप्नशिल्पी आधुनिक राजस्थान के निर्माता मोहनलाल सुखाड़िया एक युग पुरूष थे, शताब्दी पुरूष थे।

राजस्थान के लोककवि स्वर्गीय मेघराज मुकुल ने श्री सुखाड़िया को काव्यांजलि अर्पित करते हुए कहा था -

इतिहास लिख रहा है जिसकी गौरवा गाथा।
लोरी दे सुला चुकी जिसको धरती माता।।
ऐसा युग पुरूष न जाने फिर कब आएगा।
जो जन-जन की आत्मा में घुल रम जायेगा।।